लोकतंत्र के महापर्व में बदसूरत बयानबाजी !

 

विजय श्रीवास्तव

कहते हैं भाषा आदमी या समाज का आईना होती है। भाषा उनके चाल-चरित्र को दर्शाती है और उनकी सभ्यता के बारे में आंकलन कराती है। लेकिन क्या ये सब बातें किताबी हैं? अगर नहीं तो फिर आखिर ऐसा क्या हो जाता है चुनावों में जो पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर जमकर जुमलेबाजी, छींटाकशी, अमर्यादित भाषा और आरोप-प्रत्यारोपों की झड़ी लगा देता है? शायद कुछ लोगों को इस बात का ये जवाब ठीक लगे कि “मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है”। इसमें क्या जायज है क्या नाजायज? इस बात का फैसला तो जनता खुद ही कर सकती है क्योंकि जनता जर्नादन होती है और चुनावों में जनता से ऊपर कोई नहीं। फिर भी अपन को ऐसा लगता है कि चाहे मंजिल कोई भी हो लेकिन रास्ता ऐसा कभी नहीं होना चाहिए कि मंजिल पर पहुंचने के बाद कभी किसी अपने से रूबरू होना पड़े तो शर्मिंदगी उठानी पड़े। 

हाल ही में पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनावों में राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों और प्रचार-प्रसार में जुटे नेताओं ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया वो किसी जहर में बुझे कमान से निकले तीर से कम नहीं हैं। इन दिनों यूं तो पांच राज्यों असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू और पुड्डुचेरी में चुनावी चौसर बिछी हुई है। पश्चिम बंगाल को छोड़कर बाकी के राज्यों में हालांकि चुनाव हो चुके हैं और बंगाल में आठ में से चौथे चरण का मतदान 10अप्रैल को होगा। इन चुनावों में बड़े-बड़े लोगों ने एक-दूसरे पर जिस तरह की टीका-टिप्पणी की या अभद्र भाषा का प्रयोग किया वो वाकई आपत्तिजनक और शर्मनाक है। वैसे तो लोग कुछ भी बोलते हैं लेकिन जब बात राजनेताओं के बारे में हो तो उन्हें अपनी भाषा को संयमित और मर्यादित रखना जरूरी होता है, क्योंकि वो जिस क्षेत्र या राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं उनकी भाषा पूरे प्रदेश की भाषा और सभ्यता या संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसे में इन लोगों को अपने भाषणों और राजनैतिक जीवन में भाषा पर काम करना चाहिए।

…या फिर क्यों न चुनाव आयोग आने वाले समय में इस विषय पर काम करते हुए चुनाव प्रचार में संयमित भाषा के इतर ऐसे शब्दों को या ऐसे आरोपों को अपराध की श्रेणी में रख दे जिससे किसी राजनेता के व्यक्तिगत जीवन पर असर पड़ता हो। अब चाहे गलत शब्दावली का प्रयोग कोई भी करे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री, विधायक या सांसद सभी के लिए नियमों के उल्लंघन पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान भी हो तो फिर कुछ हद तक इसमें सुधार की गुंजाइ्श नजर आती है। अब ये कैसे होगा और क्या नियम इसके होने चाहिए? इसके लिए थोड़ी तो विभाग को भी मशक्कत करनी ही चाहिए तभी हमारे देश में चुनावी माहौल कुछ हद तक स्वतंत्र और हैल्दी हो पाएगा। 

हम बात कर रहे हैं इस बार चुनाव में राजनेताओं द्वारा किए गए आपत्तिजनक शब्दों के प्रयोग या अभद्र भाषा की। इस कड़ी में पश्चिम बंगाल में सर्वाधिक भाषा का दुरूपयोग राजनेताओं द्वारा सत्ता हथियाने के लिए हुआ। ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है लेकिन राजनीति की समझ रखने वालों को ऐसा लगता है कि बस अब इस पर भी प्रतिबंध होना ही चाहिए। बयानबाजी की बानगी इससे ही लगती है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी पर पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रदेशाध्यक्ष दिलीप घोष ने बदजुबानी करते हुए ममता को बरमूड़ा पहनने की सलाह दे डाली। यह बयानबाजी सोशल मीडिया पर खूब वायरल भी हुई और फिर क्या था टीएमसी वाले भी कम थोड़े ही हैं वो भी खुद को सवा सैर से कम थोड़े ही समझते हैं। टीएमसी के लोगों ने भी जमकर एक के बाद एक भाजपा पर शब्दों के जहरीले वाण छोड़ना शुरू कर दिए। टीएमसी नेता शेख आलम ने तो इतना बवाल काटा कि उन्होंने चार पाकिस्तान बनाने की बात कह डाली। उन्होंने कहा कि ‘अगर भारत के तीस फीसदी मुसलमान एक हो जाये तो हम चार पाकिस्तान बना देंगे’। इधर टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने तो बीजेपी को बंदर कह डाला। तो पार्टी प्रमुख भी कैसे पीछे रहतीं उन्होंने भी देश के सबसे गरिमामय पदों में से एक प्रधानमंत्री जैसे पद पर आसीन व्यक्ति के लिए कथित तौर पर “साला” शब्द का इस्तेमाल किया, जिससे शर्मनाक और कोई बात हो ही नहीं सकती। भारतीय लोकतंत्र के इस महापर्व में बदसूरत बयानबाजी का सिलसिला यहीं पर खत्म नहीं हुआ। लोकतंत्र में इससे पहले भी कई बार सार्वजनिक मंचों से  राजनेताओं को दुशासन, दुर्योंधन, दैत्य और राक्षस की संज्ञा दी चुकी है। साथ ही मीर जाफर और गद्दार जैसे शब्दों से भी कई नेता अलंकृत हो चुके हैं। इधर ममता बनर्जी के सामने नंदीग्राम से चुनावी मैदान में भाजपा के प्रत्याशी बनकर उतरे शुभेंदु अधिकारी जो कभी ममता के दायें-बाएं हुआ करते थे ने ममता बनर्जी को बंगाल की बेटी नहीं बल्कि “घुसपैठियों की मौसी और रोहिंग्याओं की चाची” तक बना डाला। अब ये शब्दों के बाण कब और कहां जाकर रूकेंगे ये तो शायद ही कोई बता पाए?

बहरहाल शायद इसी का नाम राजनीति है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं ‘मोहब्बत और जंग में सब जायज है’। अब राजनीति भी किसी जंग से कम थोड़े ही है, जो लोग यहां पीछे रह जाएं। चुनावी भाषण देते हुए अक्सर राजनेता अपना आपा खो देते हैं और न जाने किस खुमारी वो सब बोल जाते हैं जो शायद उन्हें कभी नहीं बोलना चाहिए। खैर ये अब जनता तय करे कि उसे कैसे नेता चाहिए? और या फिर चुनाव आयोग ही इस पर कोई लगाम कसे तभी भारत में ये लोकतंत्र का पर्व पवित्र रह पाएगा, नहीं तो इसे भी लोग अपने स्वार्थ के लिए पवित्र गंगा नदी को जैस मैला कर दिया, इसे भी नहीं छोड़ेंगे।

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