जैविक खेती करें किसान...इसलिए इस रांची ब्यॉय ने छोड़ी मोटी सैलेरी वाली नौकरी

जस्ट टुडे
रांची। झारखंड में गुमला जिले के रहने वाले श्रीजन का स्वभाव भी अपने नाम को चरितार्थ करता है। वे फिलहाल स्थानीय युवकों के लिए नायक की तरह हैं। जिसने अपने कठिन परिश्रम और लगन के बूते किसानों को आत्मनिर्भर और आर्थिक सक्षम बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। क्षेत्र के किसानों की दयनीय हालत ने उन्हें इस कदर व्यथित कर दिया कि उन्होंने हैदराबाद स्थित एक अग्रणी माइक्रो फाइनेंस संस्थान (एफएफआई) की अच्छी सैलेरी वाली नौकरी छोड़ दी और किसानों के उज्जवल भविष्य के लिए कार्य करने को प्रेरित किया। अभी वे एक एनजीओ में कार्य कर रहे हैं, इसमें उन्हें सैलेरी पहले वाली नौकरी से कम मिल रही है, लेकिन, किसानों की बेहतरी के लिए कार्य करके वे बहुत खुश हैं। नौकरी छोडऩे से लेकर किसानों की बेहतरी के लिए कार्य करने तक का कैसा रहा सफर जानिए उनकी जुबानी...


अच्छे पैकेज की मिली नौकरी


श्रीजन का कहना है कि मैंने ग्रामीण प्रबंधन में स्नातकोत्तर की और दूसरे युवाओं की तरह मैं भी अच्छी नौकरी के लिए कोशिश करने लगा। कुछ समय में ही हैदराबाद में एक अग्रणी माइक्रो फाइनेंस कम्पनी में अच्छी सैलेरी वाली नौकरी मिल गई। इस नौकरी में कॅरियर के विकास की संभावनाएं भी अपार थीं। हालांकि, ग्रामीण परिवेश होने के चलते मैं शुरू से ही प्रकृति, पर्यावरण और खेती के बहुत करीब रहा। मैं कम्पनी की तरफ से तेलंगाना के एक दूर के गांव में अपने साथी प्रशिक्षुओं के साथ यात्रा पर गया, वह मेरी नौकरी का चौथा दिन था। 

तब हकीकत आई समझ

इस दौरान मैंने कई ग्रामीण शिविरों में प्रशिक्षु छात्र की तरह भाग लिया। वहां मैंने स्थानीय ग्रामीणों से बात की। इस दौरान क्षेत्र में और पड़ोसी राज्य आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्याओं और उनके कारणों के बारे में पता चला। आत्महत्या करने वाले किसानों ने फाइनेंस कम्पनी से मोटे ब्याज पर ऋण ले रखा था और अच्छी फसल की उम्मीद लगा रखी थी। लेकिन, फसल पर कीटों के हमले, अपर्याप्त पानी की वजह से भरपूर सिंचाई नहीं होना आदि कई कारणों के चलते पैदावार नगण्य रही। फलस्वरूप वे ऋण चुकाने में असमर्थ रहे। इसके चलते फाइनेंस कम्पनी वाले उनके पशुधन सहित अन्य सम्पत्तियों को उठाकर ले गए। इसके चलते उनके भरण-पोषण की भी समस्या पैदा हो गई। मुझे भी समझ में आ गया कि मेरी नौकरी में भी आगामी जिम्मेदारियों में यह सब शामिल होगा।

फिर भी मैं खुश था

हैदराबाद लौटने के बाद मैंने अपने सहयोगियों के साथ इस पर विचार-विमर्श किया। इसके साथ ही अपने परिवार, दोस्तों और शिक्षकों के साथ मेरे विचलित मन पर परामर्श लिया। इसके बाद मैंने नौकरी छोड़ दी। उस समय मुझे नहीं पता था कि मैं एक अविश्वसनीय यात्रा की शुरुआत करने वाला हूं। इसके बाद मैंने गुमला स्थित एक एनजीओ में परियोजना समन्वयक के रूप में नौकरी की। इसमें मुझे पहली नौकरी से कम सैलेरी पर रखा गया और नौकरी में भी निश्चितता नहीं थी। फिर भी मैं अपने फैसले से खुश था। 

किसानों ने की सवालों की बमबारी


इसके बाद मैंने किसानों की प्राथमिक समस्याओं पर जोर देना शुरू किया। इसके लिए किसानों को मैंने जैविक खेती की गुणवत्ता के बारे में बताया। मैंने उन्हें रासायनिक खेती छोडऩे को कहा। शुरू में किसानों ने अपने प्रश्नों की बमबारी से मेरे इस विचार की धज्जियां उड़ा दीं। उन्होंने पूछा कि यदि जैविक खेती अच्छी है तो फिर रासायनिक खेती क्यों शुरू की गई? हम अपने उत्पादों को कहां बेचेंगे? अगर कीटों का हमला हुआ तो क्या करेंगे? मैं समझ गया कि किसान सिर्फ पैदावार बढ़ाने की सोच रहे हैं और अन्य किसी भी सलाह को मानने को तैयार नहीं है।

पायलट प्रोजेक्ट किया शुरू

मैंने उन्हें समझाया कि जैविक खेती भले ही शुरू में कम उपज देती हो, लेकिन, अलग-अलग फसलों के पैटर्न को प्रोत्साहित करने से उपज बढ़ेगी। वहीं रासायनिक खेती से शुरू में उपज अच्छी मिलती है, लेकिन, लम्बे समय बाद भूमि बंजर हो जाएगी। मुझे पता था कि जैविक खेती को प्रोत्साहित करने वाली कई सरकारी योजनाएं भी मौजूद हैं, लेकिन, ज्यादातर किसानों तक उनकी पहुंच नहीं है। उसके बाद मैंने एक टीम बनाई और पायलट प्रोजेक्ट के रूप में गुमला और पालकोट ब्लॉक की सीमा पर स्थित सल्यातोली गांव में जैविक खेती की शुरुआत की। इस गांव में जैविक खेती हो रही थी, इसलिए शुरुआत भी यहीं से करने की सोची। 

आंकड़ों से नहीं चलने वाला काम

पता चला कि गांव में वर्ष 2005-2006 के आस-पास रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया गया था। समय के साथ संकर बीज और आधुनिक तकनीक भी आ गईं। धीरे-धीरे मिट्टी के साथ अधिक पानी की मांग के साथ रासायनिकों के दुष्परिणाम दिखने लग गए। इसके साथ ही अप्रशिक्षित स्थानीय डीलरों के सुझावों पर अमल करते हुए किसानों ने आवश्यकता से अधिक रासायनिकों का उपयोग किया, जिससे मिट्टी और किसानों की आर्थिक स्थिति दोनों खराब हो गए। हालांकि, तब तक मुझ और मेरी टीम को समझ में आ चुका था कि केवल आंकड़े बताने से किसान जैविक खेती को नहीं अपनाएंगे।

रंग लाने लगा प्रयास


इसके लिए उन्होंने सलीतोली गांव के सभी 27 किसान, जो जैविक खेती कर रहे थे, उन्हें अपनी टीम में शामिल किया। फिर वे सब फोटोग्राफ और वीडियो के जरिए जैविक खेती कर रहे प्रगतिशील किसानों के संदेश उनमें प्रचारित करने लगा। इंटरनेट पर भी इस तरह के किसानों को ढूंढ़ा और उन्हें इसके बारे में समझाया। उन्होंने कहा कि पहले हमारा एनजीओ दूसरे क्षेत्र में कार्य करता था, लेकिन, मेरे सुझाव देने पर परियोजना अधिकारी ने जैविक खेती की दिशा में किसानों के हित में कार्य करना शुरू किया। इस प्रयास में वे रांची संगठन, फील्ड एण्ड वन से भी जुड़े, जिसने देहरादून के नवदान्य के साथ भी कार्य किया। इन संगठनों ने बिना किसी कीमत पर किसानों को प्रशिक्षण सत्र, क्षमता निर्माण कार्यक्रम और जैविक बीज प्रदान करने के बारे में बताया। विभिन्न एजेंसियों और स्थानीय समुदायों के सहयोग से धन जुटाया। इससे सल्यातोली गांव के सभी 27 किसानों को भी भरोसा होने लगा। 

ये किसान हुए जागरूक...दूसरों को होना होगा जागरूक

इसके बाद हमने एक कंट्रोल रूम बनाया, जिसमें किसानों की समस्याओं का निदान करने लगे। कीट हमलों की वास्तविक फोटो भेजकर विशेषज्ञों से सलाह लेने लगे। तुरन्त सलाह मिलने पर कीटों से फसलों को बचाने में मदद मिली। इसके बाद आसपास के किसानों को भी हमारी बात समझ आने लगी और हमसे मदद मांगने लगे। हमने भी प्रत्येक गांव में किसानों की टीमें बनाईं और स्मार्टफोन चलाना सिखाया। करीब 11 गांवों के किसान हमसे जुड़े हुए हैं। हमने प्रत्येक गांव में एक टीम बनाई है, जिसमें एक नेता, एक वित्त व्यक्ति और एक विशेषज्ञ शामिल है। श्रीजन कहते हैं कि भले ही जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए कई सरकारी योजनाएं चल रही हों, लेकिन, जब तक हम किसानों को जैविक खेती के बारे में जागरूक नहीं करेंगे, तब तक सब बेकार है।


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